सन्यास कितने प्रकार का होता है।
ये संन्यासी तीन प्रकार के हो सकते हैं।
एक :- वे जिन्होंने सावधिक संन्यास लिया है, जो एक अवधि के लिए संन्यास लेकर आये हैं, जो दो महीने, तीन महीने संन्यासी होंगे, साधना करेंगे। एकांत में रह सकते हैं, फिर वापस जिंदगी में लौट जाएं।
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दूसरे :- वे संन्यासी हो सकते हैं जो जहां हैं, वहां से इंचभर नहीं हटते, क्षणभर के लिए नहीं हटते, वहीं संन्यासी हो जाते हैं। और वहीं अभिनय और साक्षी का जीवन शुरू कर देते हैं।
तीसरे :- वे भी संन्यासी होंगे जो संन्यास के आनंद में इतने डूब जाते हैं कि न तो लौटने का उन्हें सवाल उठता, न ही उनके ऊपर कोई जिम्मेवारी है कि जिसकी वजह से उन्हें किसी के घर में बंधा हुआ रहना पड़े। न उन पर कोई निर्भर है, न उनके यहां वहां हट जाने से कहीं भी कोई पीड़ा और कहीं भी कोई दुख और कहीं भी कोई अड़चन आती है। ऐसा जो तीसरा वर्ग होगा संन्यासियों का, यह तीसरा वर्ग ध्यान में जिये, ध्यान की खबरें ले जाए, ध्यान को लोगों तक पहुंचाए।
मुझे ऐसा लगता है कि इस समय पृथ्वी पर जितनी ध्यान की जरूरत है उतनी और किसी चीज की नहीं है। और अगर हम पृथ्वी के एक बड़े मनुष्यता के हिस्से को ध्यान में लीन नहीं कर सके तो शायद आदमी ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहेगा। आदमियत ज्यादा दिन बच नहीं सकती। आदमी समाप्त हो सकता है। इतना मानसिक रोग है, इतने पागलपन हैं,
इतनी विक्षिप्तता है, इतनी राजनैतिक बीमारियां हैं कि उन सबके बीच आदमी बचेगा इसकी उम्मीद रोज कम होती जाती है। अगर इस बीच एक बड़े व्यापक पैमाने पर लाखों लोग ध्यान में नहीं डूब जाते तो शायद हम मनुष्य को नहीं बचा सकेंगे। और या हो सकता है, मनुष्य बच भी जाए तो सिर्फ यंत्र की भांति बचे क्योंकि मनुष्यता का जो भी श्रेष्ठ है वह सब खो जाएगा।
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इसलिए एक ऐसा वर्ग भी चाहिए युवकों का, युवतियों का, जिन पर कोई जिम्मेवारी न हो अभी—या वृद्धों का वर्ग जो जिम्मेवारी के बाहर जा चुके हों, जिनकी जिम्मेवारी समाप्त हो गयी हो, जो जिम्मेवारी पूरी कर चुके हों। उन युवकों का जिन्होंने अभी जिम्मेवारी नहीं ली है, उन वृद्धों का, जिनकी जिम्मेवारी जा चुकी है—इनका एक वर्ग चाहिए जो विराट पैमाने पर पृथ्वी को ध्यान में डुबाने में संलग्न हो जाए।
जिस ध्यान के प्रयोग की मैं बात कर रहा हूं वह इतना आसान है, इतना वैज्ञानिक है कि अगर सौ लोग करें तो सत्तर प्रतिशत लोगों को तो होगा ही। सिर्फ शर्त 'करने' की है और किसी पात्रता की कोई अपेक्षा नहीं है। सत्तर प्रतिशत लोगों को तो परिणाम होंगे ही। फिर जिस ध्यान की मैं बात कर रहा हूं उसके लिए किसी धर्म की कोई पूर्व अपेक्षा नहीं है।
किसी शास्त्र की कोई पूर्व अपेक्षा नहीं है, किसी श्रद्धा और किसी विश्वास की पूर्व अपेक्षा नहीं है। सीधे, जैसे आप हैं वैसे ही उस ध्यान में आप उतर सकते हैं। सीधा वैज्ञानिक प्रयोग है। आपसे यह भी अपेक्षा नहीं है कि आप श्रद्धा रखकर उतरें। इतनी ही अपेक्षा है कि एक हाईपोथेटिकल, परिकल्पनात्मक, जैसा एक वैज्ञानिक प्रयोग करता है यह जानने के लिए कि देखें होता है, या नहीं—इतना ही प्रयोग का भाव लेकर अगर आप ध्यान में उतरें तो भी हो जाएगा।
और मुझे ऐसा लगता है कि एक शृंखलाबद्ध ध्यान की प्रक्रिया सारी पृथ्वी पर फैलाई जा सकती है। और अगर एक व्यक्ति ध्यान को सीख ले और तय कर ले कि सात दिन न बीत पाएंगे तब तक वह एक व्यक्ति को कम—से—कम ध्यान सिखाएगा तो हम दस वर्ष में इस पूरी पृथ्वी को ध्यान में डुबा देंगे। इससे ज्यादा बड़े श्रम की जरूरत नहीं है।
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मनुष्य के जीवन में जो भी श्रेष्ठ खो गया है वह सब वापस लौट सकता है। और कोई कारण नहीं है कि कृष्ण फिर पैदा क्यों न हों, क्राइस्ट फिर क्यों न दिखाई पड़े, बुद्ध फिर क्यों न हमारे पास हमारे निकट मौजूद हो जाएं—वही बुद्ध नहीं लौटेंगे, वही कृष्ण नहीं लौटेंगे। हमारे भीतर सारी क्षमताएं हैं, वह फिर प्रगट हो सकती हैं। इसलिए मैंने गवाह होने का तय किया है।
ओशो
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